बचपन कल, आज और कल
"बचपन" इस शब्द को सुन कर मन प्रफुल्लित सा हो जाता है। मनुष्य जीवन का एक यादगार लम्हा जब वह इस सृष्टि में आ कर हॅसने-रोने के अलावा बोलना, चलना-फिरना, खेलना-कूदना आदि क्रियाओं के साथ अपने पैरों पर खड़ा होना सीखता है। बचपन की बचकानी हरकत, बचपन की शरारतें अच्छी हो या बुरी पर होती एकदम साफ मन से है। परन्तु बचपन कल और आज का बहुत बदल गया है, पहले हमारे पास समय था, हमारी इच्छाएं कम थी, हमारी परिधि कम थी, हमारी इच्छाओं का दायरा कम था, विज्ञान को समझने की कोशिश में थे, वस्तुओं के ब्रांड कम थे। इसलिए वो बचपन आज के बचपन से बिलकुल अलग था आज तेजी से बदलती इस दुनिया में किसी के पास पर्याप्त समय नहीं, खाने -पीने की ढेरों किस्में बाजार में उपलब्ध है,पर वो भूख और स्वाद नहीं, पहले हमारे पास मोबाइल नहीं था, टीवी के इतने सारे चैनल नहीं थे। सबसे बड़ी बात है की पहले किसी-किसी जगह ही कॉम्पिटिशन था, और आज हर जगह कॉम्पिटिशन देखने को मिलता है। हमारे बुजुर्गों का बचपन कैसे बिता? हमारा बचपन कैसे बिता? हमारे बच्चों का बचपन कैसे बीत रहा है? और उनके बच्चों का बचपन कैसा होगा? अगर आज इस पर ध्यान नहीं गया तो बचपन ही समाप्त हो जायेगा।
बच्चों का मन बहुत कोमल होता है एक कच्चे मिटटी के घड़े जैसे, जिसे जिस आकर में ढालें ढल जाये। बाल मन को समझना आसान नहीं, क्योंकि एक बच्चा शब्दों-वाक्यों से परे सिर्फ भावनाओं को समझते है। कहते है बच्चों में भगवान् बसते है, और जिस प्रकार भगवान् भाव को समझते है उसी प्रकार बच्चे भी भाव ही समझते है। बाल मन को समझना आसान नहीं है फिर भी थोड़ा प्यार थोड़ा फटकार जरुरी है। बच्चों को यदि कुछ सिखाना चाहिए तो उन्हें जीवन जीने की कला सिखानी है। और जीवन को प्रकृति और प्रवृत्ति से सीखा जाना चाहिए। जिस प्रकार मौसम अलग-अलग है और प्रकृति मौसम के अनुसार व्यवहार करती है, जहाँ पतझड़ में वृक्ष अपने पत्ते त्याग देती है वहीँ पुनः बसंत में खुद को हरा -भरा कर लेती है। कभी तेज गर्मी तो कभी कड़ाके की सर्दी हर मौसम का अपना महत्व है। अगर प्रकृति में यह जलवायु परिवर्तन न हो या समय से न हो तो उसका सीधा असर अनाजों सब्जियों के पैदावार में पड़ता है, व्यक्ति के स्वास्थ पर पड़ता है। उसी प्रकार बच्चों को प्यार की जरुरत तो हमेशा रहती ही है पर उसके साथ साथ जरुरत पड़ने पर डांटना भी चाहिए, उनकी इच्छाओं की पूर्ति करना ठीक है पर इच्छाओं की अति पर लगाम होना चाहिए, उन्हें सुख सुविधाएं देना ठीक है पर उन्हें कठिन परिस्थितियों का बोध भी होना चाहिए। परन्तु आज हम क्या कर रहे है? अपने बच्चों के लिए हम बस और बस अच्छा और सबसे अच्छा ही चाह रहें है। हम चाह रहें है हमारा बच्चा सबसे अच्छे स्कूल में पढ़े, एग्जाम में वो सबसे अच्छे अंक अर्जित करे, खेल में भी सबसे आगे रहे, फिर डांस, म्यूजिक की क्लास भी जाये, टॉप के कॉलेज में एड्मिशन हो जाये, और टॉप की कंपनी में टॉप पोस्ट में सलेक्ट हो जाये। अरे बच्चा अभी ठीक से चलना भी नहीं सीख पाया है और हम उसका पूरा भविष्य देखने लग गए।अपेक्षाएं करना अच्छा है पर प्रकृति की उपेक्षा करना गलत है। एक समय था जब बच्चे लकड़ी, पत्थर, मिटटी से अपने खिलौने तलाश लेते थे, और आज कंप्यूटर टीवी और मोबाइल में गेम तलाशते है। पहले के बच्चे खेलते -खेलते पेड़ पर चढ़ जाते थे और फल तोड़कर खा जाते थे, कही भी नल में, हैंडपंप में या कुवें का पानी पीकर भी बीमार नहीं होते थे क्योंकि प्रदुषण कम था, और आज हाथ साफ कर खाने के बाद भी बीमार हो जाते है क्योंकि प्रदुषण बहुत बढ़ गया है। हम खुद ही बच्चों को नाजुक बनाये जा रहे है जबकि प्रकृति ने उन्हें स्ट्रांग बनाये रखने की चीजें उपलब्ध करा रखी है, बस हम बच्चों को वहां पहुंचने नहीं देते। पहले बच्चे खुद ही भागते थे क्योंकि भागने में उन्हें मजा आता था, आज बच्चों को हम भगा रहें हैं ताकि वो मैडल ला सके। स्कूल में एडमिशन के समय पहले देखते थे की स्कूल पास में हो, बजट में हो सामर्थ्य में हो, और आज देखते हैं की स्कूल का मीडियम कौन सा है उसकी बिल्डिंग कितनी बड़ी है और उसका नाम कितना चल रहा है। पहले बच्चे स्कूल से निकल कर कुछ बड़ा कर जाते थे तो स्कूल का नाम रोशन होता था पर आज लोग ये सोच कर स्कूल चयन करते है की इस स्कूल से मेरे बच्चे का नाम रोशन होगा। आज के बच्चे ज्यादा तेज ज्यादा स्मार्ट है क्योकि उनको संस्कार देने वाले सिर्फ माता-पिता या गुरुजन ही नहीं बल्कि कंप्यूटर, मोबाइल और सोशल मिडिया भी उनके साथ है।
अंत में बस इतना ही की बच्चों को केवल अच्छे साधन उपलब्ध कराने के साथ-साथ अच्छे संस्कार भी देना है, मंजिल उन्हें खुद चयन करने दें बस उन्हें आप राह बताएं। दुनिया में बड़े-बड़े काम करने वाले बहुत है पर याद वे ही आते है जो अच्छे काम करते है।
इन्द्रजीत सिंह कुर्राम