हे मानव
हे मानव, तु अपनी पहचान बना। इस श्रृष्टि में तेरा भी अवतार हुआ है, किसी न किसी कार्य के लिये, कुछ न कुछ उद्देश्य की पूर्ति के लिए। बस यही सोच कर तू अपने प्रत्येक कार्य को अंजाम दे। तू अपने से बड़ों का आशीर्वाद प्राप्त कर, कनिष्ठों मे स्नेह की वर्षा कर और अपने मित्रों से मित्रवत हो जा। कभी भी किसी का दिल न दुखा, किसी से कटु या असत्य वचन न कह, न क़िसी से रूठना ना किसी को रुठने देना। यह जिंदगी बहुत ही छोटी है, हर पल समय हमारे हांथों से फिसलती रेत क़ी तरह फिसलती जातीं है। समय एक सा कभी नहीं होता, वह तो परिवर्तनशील है। भूत, भविष्य से परे अपने वर्तमान को सुन्दर बनाओ।
हे मानव तु केवल भौतिक सुख की लालसा में न पड़कर मानसिक एवँ हार्दिक सुख के साथ जीवन व्यतीत कर। जो भौतिक सुख आज तुम्हारी है, हो सकता है कल किसी और का हो जाये, परन्तु जो तुम्हारे मन के, ह्रदय के भीतर है वो सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा है। हे मानव जितना ध्यान तुम अपने मान-सम्मान का रखते हो उससे ज्यादा दूसरों के मान-सम्मान का रखो। कोशिश करो की हमसे कुछ ऐसा कार्य ना हो जाये जिसके लिए हमें आत्मग्लानि की अनुभूति होने लगे। क्रोध भी मनुष्य का स्वभाव है, परन्तु जहाँ तक हो सके अपने क्रोध पर नियंत्रण रखो अन्यथा व्यर्थ के विवाद ही सामने आएंगे। दूसरों की गलतियों में उनके इरादों को न ढूंढो क्योंकि मनुष्य गलतियों से भी कुछ न कुछ सीखता है। हे मानव तुम सब से प्रेम करो क्योंकि कोई जन्म से बुरा नहीं होता, परिस्थिति और माहौल उसे बुरा बना देती है, उसे सुधार सको तो सुधारो। अर्थात हे मानव तुम अपना जीवन सुधारो और इस श्रृष्टि में अपनी एक उत्कृष्ट छबी बनाओ।